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षड (छह) 6 रस और शरीर पर उनका प्रभाव और गुण (मधुर,अम्ल,लवण,कटु,तिक्त,कषाय)
रस क्या है
कब कभी भी हम कोई चीज खाते हैं उसका अपना एक स्वाद होता है और जीभ को जब वह स्वाद अनुभव होता है वह आयुर्वेद में उसका रस कहा गया है।
आयुर्वेद में 6 रस बताये गएँ है जो के आगे एक एक करके बताये जायेंगे। इन सभी रसों की अपनी अपनी तासीर होती है अलग अलग गुण धर्म होते हैं जो के वो भी बताये जायेंगे।
एक बार आपको के गुण धर्मो के बारे में पता चल जायेगा तो आपको यह भी पता चल जायेगा की कौनसे रोग में क्या खाना है और क्या नहीं खाना।
रस के प्रकार
जैसा की ऊपर बताया की रस के आयुर्वेद में 6 प्रकार के बताये गएँ है जो के निचे दिए गए हैं। इस रस अपने अपने गुणों के हिसाब से कर्म से लिखे गए हैं।
1. मधुर ( मीठा)
2. अम्ल ( खट्टा)
3. लवण (नमकीन)
4. कटु (चरपरा, तीखा)
5. तिक्त (कड़वा)
6. कषाय (कसैला)
यह सब कर्म से इस प्रकर से लिखे गए हैं की जो रस सबसे ज्यादा बल प्रदान करने वाला होगा उसको पहले लिखा गया है जैसे मधुर रस सबसे ज्यादा बल देने वाला है और सबसे खारी में लिखा गया है कषाय, याने यह सबसे कम बल देने वाला माना गया है।
रस और पंच महाभूत
हालांकि रस जल का स्वाभाविक गुण है, परन्तु जल में भी रस की उत्पत्ति (अभिव्यक्ति) तभी होती है, जब यह महाभूतों के परमाणुओं के साथ संपर्क में आता है। अतः प्रत्येक रस में अलग-अलग महाभूतों की प्रधानता पाई जाती है, जो इस प्रकार है।
वैसे तो रस अपने आप में ही जल का गुण है, लेकिन पानी में भी रस की उत्पति तभी होती है जब महाभूतों के जो परमाणु होते हैं उनके साथ संपर्क में आ जाते हैं। इसीलिए हर एक रस में भिन्न भिन्न महाभूतों की प्रधानता मिलती है जैसे की-
रस
महाभूत
मधुर
पृथ्वी और जल
अम्ल
पृथ्वी और अग्नि
लवण
जल और अग्नि
कटु
वायु और अग्नि
तिक्त
वायु और आकाश
कषाय
वायु और पृथ्वी
जिन जिन रसों में जो महाभूत पाए जाते हैं उन्ही के कारन ही शरीर में उसी प्रकार प्रभाव पड़ता है जो के हमारे वात-पित्त और कफ दोष पे असर डालता है।
रस और दोष
जैसा की ऊपर बताया गया इन रसों में जो महाभूत हैं वह किसी न किसी दोष पे असर जरूर डालते हैं कोई महाभूत किसी दोष को कम करेगा तो किसी को बढ़ाएगा। और जिस व्यक्ति को अपने खान पान से दोषों को नियंत्रित करना आजाता है वह कभी बीमार ही नहीं पड़ता।
रस
किन दोषों को बढ़ाता है
किन दोषों को घटाता है
मधुर(मीठा)
कफ
वात, पित्त
अम्ल(खट्टा)
पित्त, कफ
वात
लवण(नमकीन)
कफ, पित्त
वात
कटु(तीखा)
पित्त, वात
कफ
तिक्त(कड़वा)
वात
पित्त, कफ
कषाय(कसैला)
वात
पित्त, कफ
अब प्रत्येक रस का वर्णन करते हैं-
मधुर रस
जो रस संतुष्टि, ख़ुशी, मुंह का स्वाद मीठा कर दे और कुछ चिपचिपापन ला देता है। और यह रस पोषण देता है लेकिन कफ दोष की वृद्धि करता है। यह बल और वीर्य को बढ़ता है। वात और पित्त दोष को घटाता है।
मधुर रस के कर्म
आजन्मसात्म्यात् कुरुते धातूनां प्रबलं बलम्। बालवृद्धक्षतक्षीणवर्णकेशेन्द्रियौजसाम्॥७॥
प्रशस्तो बृंहणः कण्ठ्यः स्तन्यंसन्धानकृद्गुरुः । आयुष्यो जीवनः स्निग्धः पित्तानिलविषापहः॥
कुरुतेऽत्युपयोगेन स मेदःश्लेष्मजान् गदान् । स्थौल्याग्निसादसन्यासमेहगण्डार्बुदादिकान्॥९॥
मधुररस माता के दूध के रूप में जन्मकाल से सात्म्य (प्रकृति के अनुकूल ) होने के कारण रस आदि धातुओं को अत्यन्त बलदायक होता है। यह बालक, वृद्ध, क्षत ( उरःक्षत आदि), क्षीण (धातुक्षीण), वर्ण, केश, इन्द्रियों तथा ओजस् के लिए हितकारक होता है।
यह शरीर को पुष्ट करता है, स्वरयन्त्र के लिए हितकर है, दूध को बढाता है, टूटी अस्थियों को जोड़ता है तथा मद्यसन्धानकारक भी है; गुरु ( देर में पचने वाला) है, आयुवर्धक है, जीवन है, स्निग्ध है, पित्त, वात तथा विष का नाशक है।
इसका अधिक उपयोग करने से यह मेदोरोग तथा कफज रोगों को उत्पन्न करता है। यथा— स्थूलता(Obesity), मन्दाग्नि, सन्यास, प्रमेह, गलगण्ड(Goiter) तथा अर्बुद(Tumor) आदि रोग हो जाते हैं।। ६-९॥
-अष्टांग ह्रदयम
मधुर रस के गुण
मधुर रस जो होते है वह वह जन्म से ही अनुकूल रहते हैं। मधुर रस पदार्थ बल, वीर्य, शुक्र, मोटापा और आयु की वृद्धि करते हैं। इन रसों के सेवन करने से त्वचा के रंग में निखार आता है। कफवर्धक है और वात
पित्त नाशक है।
मधुर रस लिए जो पदार्थ होते हैं वो गला, नाक, मुंह, जीभ और होठ चिकने और मुलायम करता है। शरीर में स्थिरता, लचीलापन, शक्ति और सजीवता मिलती है। यह रस चिकनाई युक्त तो होते ही हैं, ठन्डे भी होते हैं और भारी भी होते हैं। शरीर में ओज शक्ति बढ़ाने के लिए, इन्द्रियां और बालों के लिए उत्तम है।
पतले कमजोर लोगों के लिए या किसी बीमारी आदि से पीड़ित लोगों को मधुर रस खाने की जरूर सलाह दी जाती है सिवाए कफ वाले जो रो होते हैं उनको छोड़ कर।
हर किसी चीज की एक अति होती है अतः मधुर रस के अत्यधिक सेवन से कफ दोष की वृद्धि होती है जो के निम्न रोग शरीर में पैदा कर देता है।
कफ दोष बढ़ने से होने वाले रोग
👉मेद (मोटापा)
👉आलस, सुस्ती (तन्द्रा)
👉अधिक नींद आना (अति निंद्रा)
👉शरीर में भारीपन (आलस्य)
👉भूख ना लगना (अरुचि)
👉पाचन-शक्ति की कमी (digestion problem)
👉प्रमेह (मूत्र सम्बंधित रोग, मधुमेह आदि)
👉मुंह और गर्दन आदि में मांस का बढ़ना (थाइरोइड आदि रोग)
👉मूत्रकृच्छ्र (मूत्र का रुक-रुक कर या कठिनाई से आना, किडनी रोग)
👉मुँह का मीठा स्वाद रहना
👉संवेदना (sensation) की कमी आना
👉आवाज में कमजोरी, गले में सूजन व चिपचिपाहट
👉कंजक्टीवाइटिस (आंख आना, आखों का लाल होना)
कफ दोष सीधे सीधे मोटापा लेके आता है शरीर में चर्भी बढ़ता है और मधुमेह लेके आता है इसीलिए मधुमेह में मधुर रस नहीं देते। पेट में जब कीड़े होते है तो अधिक मधुर रस खाने का मन होता है उस बीमारी में भी मधुर रस का सेवन नहीं करना चाहिए।
मधुर रस वाले खाद्य पदार्थ
आयुर्वेद में बताये गए पदार्थ- घी, सुवर्णि, गुड़(नया), केला, अखरोट, नारियल, फालसा, शतावरी चूर्ण, काकोली, बला, कटहल, अतिबला, नागबला, मेदा, महामेदा, शालपर्णाी, पृश्नपर्णाी, मुद्गपर्णाी, माषपर्णाी, जीवन्ती, जीवक, महुआ, मुलेठी, विदारी, वंशलोचन, दूध, गम्भारी, ईख(गन्ना), गोखरू, मधु और द्राक्षा, यह सभी पदार्थ मधुर रसों में मुख्य मुख्य है।
अपवाद
अम्ल रस
यह वह रस होते हैं जिनके खाते ही मुंह का स्त्राव बढ़ जाता है, और इसके खाने से आखें मीच जाती हैं और भोने सिकुड़ जाती हैं। दॉंत में खट्टापन लगता है वो अम्ल रस याने खट्टे रस होते हैं।
अम्लरस के कर्म
अम्लोऽग्निदीप्तिकृत् स्निग्धो हृद्यः पाचनरोचनः । उष्णवीर्यो हिमस्पर्शः प्रीणनः क्लेदनो लघुः॥
करोति कफपित्तास्त्रं मूढवातानुलोमनः ।सोऽत्यभ्यस्तस्तनोः कुर्याच्छैथिल्यं तिमिरं भ्रमम् ॥
कण्डुपाण्डुत्ववीसर्पशोफविस्फोटतृड्ज्वरान् ।
अम्लरस का सेवन अग्निवर्धक, स्निग्ध, हृदय के लिए हितकर, पाचन, रोचन ( रुचिकारक), उष्णवीर्य, स्पर्श में शीतल, प्रीणन (तृप्तिकारक ), क्लेदकारक तथा लघुपाकी है।
यह कफ, पित्त तथा रक्त वर्धक है; प्रतिलोम या मूढ़ वातदोष का अनुलोमन करता है। इसका अधिक सेवन करने से शरीर में शिथिलता, तिमिर नामक नेत्ररोग, चक्करों का आना(Vertigo), खुजली(Itching), पाण्डुरोग(Anemia), वीसर्प, शोफ ( सूजन ), विस्फोट (फोड़े, शीतलारोग), प्यास का लगना तथा ज्वररोग को उत्पन्न करता है।।१०-११ ।।
-अष्टांग ह्रदयम
अम्ल रस के गुण
अम्ल रस खाने वाले पदार्थों को स्वादिष्ट और खाने की रुचिकर बनाता है जिस से भूख बढ़ती है। इनमे ज्यादतर विटामिन c पाया जाता है जी से की शरीर की इम्युनिटी बढ़ती है। स्पर्श में यह ठंडा होता है। ज्ञानिन्द्रियों की बात करें तो उन्हें सशक्त बनता है शरीर में ऊर्जा भर देता है। और मष्तिष्क को सक्रिय भी रखता है।
यह रस खाने को निगलने और फिर उसे गीला करने भी बड़ा सहायक होता है यह शरीर की पाचन किर्या को भी तेज करता है वैसे ज्यादातर कच्चे फल खट्टे होते हैं और पकने के बाद मधुर होते हैं।
अम्ल रस के अधिक सेवन से होने वाले नुकसान
जैसे के ऊपर बताया गया है की किसी भी चीज के अत्यधिक सेवन से कोई न कोई रोग उत्पन हो ही जाता है इसी प्रकार अम्ल रस के अधिक सेवन से होने वाले नुकसान भी हैं।
अम्ल(खट्टे) रस के पदार्थों का अत्यधिक सेवन करने से पित्तदोष में वृद्धि हो जाती है। जिस के परिणाम स्वरूप निम्नलिखित बीमारियां होती है-
👉बार बार प्यास का लगना
👉दाँतों में खट्टापन लगना
👉कफ का पिंघलना
👉माँसपेशियों में टूट फूट
👉जिनका शरीर दुर्बल होता है उनमे सूजन
👉शारीरिक कमजोरी
👉आँखों के सामने अँधेरी छाना जाना
👉चक्कर आना
👉खुजली होना
👉त्वचा के रोग होना
👉चोट, कटने आदि से होने वाले घावों का पक जाना और फिर उनमें पस भर जाना
👉हड्डियों का टूटना
👉गले, हृदय और छाती में जलन होना
👉बुखार (ज्वर)
अम्ल रस युक्त खाद्य पदार्थ
आंवला, नींबू, इमली, अनार, चाँदी, छाछ(लस्सी), दही(curd), आम, कमरख, कैथ और करौंदा आदि में अम्ल(खट्टे) रस अधिक मात्रा में होता है।
अपवाद
अनार या अनारदाना और आंवला, ये तीनो अम्ल(खट्टे) रस वाले होते हुए भी अम्ल रस से होने वाली किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाते।
लवण(नमकीन) रस
लवण रस सेवन करने से मुंह की लार बढ़ती है लेकिन गले और कपोल में जलन पैदा होती है यह लवण(नमकीन) रस कहलाता है।
लवणरस के कर्म-
लवणः स्तम्भसङ्घातबन्धविध्मापनोऽग्निकृत् ।।१२।।
स्नेहनः स्वेदनस्तीक्ष्णो रोचनश्छेदभेदकृत् । सोऽतियुक्तोऽम्रपवनं खलतिं पलितं वलिम्॥१३॥
तृट्कुष्ठविषवीसर्पान् जनयेत् क्षपयेद्बलम् ।
लवणरस का सेवन स्तम्भ (जकड़न ) तथा संघातबन्ध ( मल-मूत्र की रुकावट) विध्मापक अर्थात् विनाशक है तथा अग्नि (जठराग्नि ) की वृद्धि करता है। यह स्नेहन तथा स्वेदन है, तीक्ष्ण गुणयुक्त है, रुचिकारक, मांस का छेदक एवं मल का भेदक है।
इसे अधिक खाने से वातरक्त(UricAcid), खलति तथा पलित नामक कपालरोगों, वली ( झुर्रियाँ), प्यास, कुष्ठ, विष एवं वीसर्प रोगों को पैदा करता है और बल को क्षीण करता है।। १२-१३।।
वक्तव्य-चरक ने लवण के अधिक उपयोग का निषेध किया है। देखें-च. वि. १।१५। रक्तविकारों में इसको सेवन करने का निषेध है। यह बढ़े हुए मांस का छेदक है और व्रणशोथ का भेदक भी है तथा सभी रसों को उजागर (प्रकट) करने वाला भी है।
-अष्टांग ह्रदयम
लवण(नमकीन) रस के गुण
यह रस वायु(वात) की गति को निचे की और करने वाला, चिपचिपाहट करने वाला और तीक्ष्ण पाचक भी होते हैं। यह रस शरीर के अंगो में जकड़न, शरीर किए स्त्रोतों(pores) की रुकवाट करते हैं, शरीर में जमी हुई चर्बी और मल पदार्थों के जो अधिक संचय है उसको दूर करती है। नमकीन रस वाले पदार्थ ना तो बहुत ही चिकने, ना ही अधिक गर्म होते हैं और ना अधिक भारी होते हैं। बल्कि यह अन्य रसों के प्रभावों को भी कम देता है।
लवण रस के अधिक सेवन से होने वाले नुकसान
अधिक मात्रा में लवण(नमकीन) रस युक्त खाने वाले पदार्थों का अत्यधिक सेवन करने से पित्त दोष के साथ खून भी असंतुलित हो जाता है। इस वजह से निम्न समस्याएँ या बीमारिया होने की संभावना बढ़ जाती है:
👉अधिक प्यास और गर्मी लगना
👉जलन होना
👉बेहोशी आना
👉कुष्ठ(skin diseases) या अन्य चर्म रोग से पीड़ित स्थान की त्वचा का गलना या फिर सड़ना
👉मुंह का पकना
👉नेत्रपाक होना
👉सूजन आना
👉त्वचा के रंग में विकार आना
👉शरीर के अंगों से रक्तस्राव हो जाना
👉दाँतों का हिलना या कमजोर होना
👉विषैले लक्षण दिखना
👉पौरुषता में कमी(नपुंसकता)
👉गंजापन (बाल उड़ना या झड़ना)
👉बालों का असमय सफेद होना
👉झुर्रियां पड़ना
👉विसर्प (Erysipelas- एक प्रकार का चर्म रोग होता है)
👉अम्लपित्त (hyperacidity) होना
👉घाव का बढ़ना
👉बल और ओज का नाश होना
लवण रस युक्त खाद्य पदार्थ
सेंधानमक(Rock Salt), सौर्वचल नमक, कृष्ण( काला नमक), बिड नमक, सामुद्र (समुंद्री नमक) और औद्भिद नमक, रोमक, पांशुज, सीसा और क्षार, ये लवण(नमकीन) रस वाले मुख्य मुख्य द्रव्य हैं।
कटु(तीखे, चरपरे) रस
इस रस का सेवन करते ही या जीभ पे लगते ही सुई जैसी पीड़ा होनी शुरू हो जाती है यह रस जीब के खासकर अगले हिस्से को उत्तेजित करता है। यह रस आँख, नाक और मुंह से स्त्राव करवा देता है और कपोलों में जलन कर देता है।
कटुरस के कर्म
कटुर्गलामयोदर्दकुष्ठालसकशोफजित् । व्रणावसादनः स्नेहमेदःक्लेदोपशोषणः॥१७॥
दीपनः पाचनो रुच्यः शोधनोऽन्नस्य शोषणः। छिनत्ति बन्धान् स्रोतांसि विवृणोति कफापहः॥
कुरुते सोऽतियोगेन तृष्णां शुक्रबलक्षयम् ।मूर्छामाकुञ्चनं कम्पं कटिपृष्ठादिषु व्यथाम् ।। १९ ॥
कटुरस गलरोग, उदर्द (कोठ, शीतपित्त), कुष्ठ, असलक (आमविकार) एवं शोथरोग का विनाश करता है। व्रणशोथ की कठोरता को शिथिल ( ढीला ) कर देता है; स्नेह, मेदस् एवं क्लेद ( सड़न ) को सुखाता है।
यह जठराग्नि को प्रदीप्त करता है, भोजन को पचाता है, भोजन के प्रति रुचि को बढ़ाता है; मुख, नासिका, नेत्र एवं शिर का स्रावण एवं रेचन विधियों से शोधन करता है, खाये हुए अन्न को सुखाता है अतएव खाने के बाद प्यास लगती है, अतिसारनाशक है, मल के बन्धन को काटता है, स्रोतों को फैलाता है तथा कफ का नाशक है।
इस रस का अधिक प्रयोग करने से प्यास अधिक लगती है, शुक्र एवं बल का क्षय करता है। मूर्छा (बेहोशी), शरीर के अवयवों तथा सिराओं में सिकुड़न, कँपकँपी, कमर तथा पीठ में पीड़ा पैदा करता है।।१७-१९।।
-अष्टांग ह्रदयम
कटु रस के गुण
यह रस वाले पदार्थ मुंह को स्वच्छ रखते हैं क्युकी इतना स्त्राव होने के बाद मुंह तो अपने आप ही स्वच्छ रहेगा। शरीर में भोजन को पचाने में सहायक है , इनके सेवन से भूख बढ़ती है और पाचन शक्ति भी बढ़ती है। कटु रस विशेषकर ज्ञानेन्द्रियों को सही प्रकार से काम करने योग्य बनाती है।
यदि इस रस का सेवन नित्य उचित मात्रा में किया जाए तो आँख, नाक से उनके मल और हमारे शरीर के जो स्त्रोत(pores) हैं उनमे से चिपचिपे मल पदार्थों को बहार निकालता है।
कटु(तीखे) रस के अधिक सेवन से होने वाले नुकसान
कटु(तीखे) रस युक्त आहारों में वात और जठरग्नि महाभूत की अधिकता होती है। इन कटु पदार्थों के अत्यधिक सेवन करने से निम्न समस्याएं होने की संभावना रहती हैं :
👉बेहोशी होना
👉घबराहट होना
👉तालु और होंठों में सूखापन रहना
👉थकावट रहना
👉कमजोरी आना
👉चक्कर आना
👉पौरुषता, बल और वीर्य में कमी (नपुंसकता)
👉हाथों, पैरों व पीठ में जलन और दर्द होना
कटु रस का नियमित उचित मात्रा में सेवन इन रोगों में है फायदेमंद :
👉मोटापा घटाने में
👉शीतपित्त (urticaria)
👉आँतों की शिथिलता आने में
👉कंजक्टीवाइटिस (Conjunctivitis, आँख दुखनि)
👉खुजली की समस्या में
👉घाव को ठीक करने में
👉पेट के कीड़े मारने में
👉जोड़ों की जकड़न में (वात रोग)
👉गले के रोग में जैसे थाइरोइड गलगण्ड आदि
👉कुष्ठ रोग याने skin diseases में
👉उदर्द रोग में
👉अलसक रोग में
कटु(तीखे) रस युक्त पदार्थ कफ को नष्ट करते है और जमे हुए रक्त का संचार सही करते हैं। कटु रस युक्त पदार्थ खाने को स्वादिष्ठ भी बनाते हैं।
कटु रस युक्त खाद्य पदार्थ
हींग, कालीमिर्च, पंचकोल (पिप्पली(पीपरी), लाल मिर्च, सफ़ेद मिर्च पिप्पलीमूल, चव्य, चित्रक(चित्रकमूल) और शुण्ठी(सोंठ)) तथा सभी प्रकार के पित्त, मूत्र और भिलावा आदि कटु(तीखे) रस वाले मुख्य मुख्य खाद्य पदार्थ हैं।
अपवाद
तिक्त (कड़वा) रस
यह कड़वे रस मुंह से लिसलिसेपन को हटा देता है और जीभ को जड़ बना देता है। यह कफनाशक और पित्तनाशक है लेकिन वातवर्धक है।
तिक्तरस के कर्म
तिक्तः स्वयमरोचिष्णुररुचिं कृमितृविषम् ॥१४॥
कुष्ठमूर्छाज्वरोत्क्लेशदाहपित्तकफान् जयेत्। क्लेदमेदोवसामज्जशकृन्मूत्रोपशोषणः॥१५॥
लघुर्मेध्यो हिमो रूक्षः स्तन्यकण्ठविशोधनः। धातुक्षयानिलव्याधीनतियोगात्करोति सः ॥१६॥
तिक्तरस यद्यपि स्वयं अरुचिकर होता है, परन्तु यह ज्वर आदि के कारण उत्पन्न अरुचि को दूर करता है। यह कृमिरोग, तृष्णा, विष, कुष्ठ, मूर्छा, ज्वर, उत्क्लेश (जी मिचलाना), दाह (जलन), पित्तज तथा कफज विकारों का विनाश करता है।
क्लेद ( सड़न ), मेदस्, वसा, पुरीष (मल) और मूत्र को सुखाता है। यह पाक में लघु, बुद्धिवर्धक, शीतवीर्य, रूक्ष, दूध को शुद्ध करने वाला तथा गले के विकारों का शोधक है।
इसका अधिक सेवन करने से धातुक्षय तथा वातव्याधियों की उत्पत्ति हो जाती है।। १४-१६॥
-अष्टांग ह्रदयम
तिक्त रस के गुण
तिक्त(कड़वे) रस का स्वाद भले ही बुरा हो लेकिन यह अन्य पदार्थों को यह स्वादिष्ट और रुचिकर बनाता है। जो पदार्थ रुचिकर होता है वह भूख को बढ़ाता है, तिक्त रस वाले पदार्थ विषैले प्रभाव को, पेट के कीड़ों को , कुष्ठ(स्किन के रोग), खुजली को, बेहोशी को, जलन को, बार बार प्यास को, त्वचा के रोगों, मोटापे व मधुमेह आदि रोग को दूर करते हैं।
कड़वे(तिक्त) रस से नुकसान
👉कड़वे रस का अधिक मात्रा में सेवन करने से
👉तिक्तरस युक्त पदार्थ शरीर में रस (plasma), खून, वसा, मज्जा तथा शुक्र की मात्रा को कम कर देते हैं।
👉इनसे स्रोतों(पोर्स) में खुरदरापन और मुँह में शुष्कता उत्पन कर देते हैं
👉शक्ति में कमी आ जाती है
👉शारीरिक दुर्बलता
👉थकावट होना
👉चक्कर आना
👉बेहोशी आना
👉वातज रोग उत्पन्न होते हैं।
तिक्त(कड़वा) रस युक्त खाद्य पदार्थ
पटोल, जयन्ती,खस, सुगन्धबाला, चन्दन, चिरायता, नीम, करेला, गिलोय, धमासा, छोटी और बड़ी कटेरी, महापंचमूल, इद्रायण(गडुम्बा), अतीस और वच : ये सब तिक्त(कड़वे) रस वाले पदार्थ हैं।
अपवाद
गिलोय व पटोल तिक्त रस वाले होने पर भी हानिकारक नहीं होते।
कषाय(कसैला) रस
यह कषाय रस जीभ को सुन्न कर देती है और गले एवं स्रोतों(pores) को अवरुद्ध करता है।
कषायरस के कर्म
कषायः पित्तकफहा गुरुरस्रविशोधनः । पीडनो रोपणः शीतः क्लेदमेदोविशोषणः ॥२०॥
आमसंस्तम्भनो ग्राही रूक्षोऽति त्वक्प्रसादनः । करोति शीलितः सोऽति विष्टम्भाध्मानहृद्रुजः ॥
तृट्कार्यपौरुषभ्रंशस्रोतोरोधमलग्रहान् ।
कषायरस पित्त तथा कफ को शान्त करता है, गुरु है, रक्त को शुद्ध करता है। कषायरस-प्रधान द्रव्यों का लेप लगाने से यह पके फोड़े का पीडन करता है और पूय निकल जाने पर रोपण करता है।
यह शीतीवीर्य है, सड़न तथा मेदोधातु को सुखाता है, आमदोष को रोकता है तथा मल-मूत्र मल को बाँधता है।
यह अत्यन्त रूक्ष होता है, त्वचा को स्वच्छ करता है। इसका अधिक सेवन करने से विष्टम्भ, आध्मान (अफरा ), हृदय में पीड़ा, प्यास, कृशता, शुक्रधातु का नाश, स्रोतों में रुकावट तथा मल मूत्र में रुकावट होती है ।। २०-२१ ।।
कषाय(कसैला) रस के गुण
यह कसेले रस पित्त और कफ दोष को कम करता है, और यह अंगों से स्राव को कम करता है, घावों को जल्दी भरता है और हड्डियों को जोड़े रखने में काफी मदद करता है। इसके अंदर धातुओं और मूत्र आदि को सुखाने वाले गुण होते हैं। यही कारण है कि कषाय(कसेला) रस युक्त पदार्थों के सेवन से कब्ज़ की समस्या हो जाती है।
कषाय युक्त जो पदार्थ होते हैं वे त्वचा को स्वच्छ बनाते हैं। इसके अलावा ये शरीर की नमी को सोख भी लेते हैं। आयुर्वेद के अनुसार कषाय रस सूखा, ठंडा और भारी होता है।
कषाय(कसैला) रस के अधिक सेवन से होने वाले नुकसान
कषाय रस वात को प्रकुपित करते हैं। अगर आप कसेले रस वाली चीजों का अधिक मात्रा में सेवन करते हैं तो आपको निम्न समस्याएँ या बीमारी होने की आशंका बढ़ जाती है।
👉मुँह का सुखना
👉हृदय में दर्द होना
👉पेट फूलना (अफारा)
👉बोलने में रुकावट होना
👉रंग का काला पद जाना
👉पौरुष का नाश (नपुंसकता)
👉अधिक प्यास का लगना
👉शरीर में कमजोरी आना
👉थकावट होना
👉पक्षाघात(लकवा)
कषाय रस वाले खाद्य पदार्थ :
हरड़, शिरीष, खैर, शहद, बहेड़ा, कदम्ब, गूलर, कच्ची खांड, पद्म, मुक्ता (मोती), प्रवाल, कमल-ककड़ी, अञ्जन और गेरू इत्यादि कषाय रस वाले खाद्य पदार्थ हैं।